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Baisvi Sadi By Rahul Sankrityayan

149.00

सड़ा गला, खराब अन्न भी उस समय करोड़ों आदमियों को पेट भर न मिलता था। कितने ही लोग पेट के लिए गाँव-गाँव भीख माँगते फिरते थे। मैंने अपनी आँखों से अनेक स्थानों पर ऐसे लड़कों और आदमियों को देखा था, जो कि, फेंके जाते जूठे टुकड़ों को कुत्तों के मुँह से छीनकर खा जाते थे। यह बात नहीं, कि लोग परिश्रम से घबराते थे। दो-चार चाहे वैसे भी हों; किन्तु अधिकतर ऐसे थे, जो रात के चार बजे से फिर रात के आठ-आठ दस-दस बजे तक भूखे-प्यासे खेतों, दुकानों, कारखानों में काम करते थे, फिर भी उनके लिए पेट-भर अन्न और तन के लिए अत्यावश्यक मोटे-झोटे वस्त्र तक मुयस्सर न होते थे। बीमार पड़ जाने पर उनकी और आफ़त थी। एक तरफ बीमारी की मार, दूसरी ओर औषधि और वैद्य का अभाव और तिस पर खाने का कहीं ठिकाना न था। १९१८ के दिसम्बर का समय था

Pages – 120

Weight – 160g

Size – 21 x 14 x 0.5 cm

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